भगवान् शिव को गुरु स्वरुप में दक्षिणामूर्ति कहा गया है, दक्षिणामूर्ति ( Dakshinamurti ) अर्थात दक्षिण की ओर मुख किये हुए शिव इस रूप में योग, संगीत और तर्क का ज्ञान प्रदान करते हैं और शास्त्रों की व्याख्या करते हैं।
कुछ शास्त्रों के अनुसार, यदि किसी साधक को गुरु की प्राप्ति न हो, तो वह भगवान् दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है, कुछ समय बाद उसके योग्य होने पर उसे आत्मज्ञानी गुरु की प्राप्ति होती है।
गुरुवार (बृहस्पतिवार) का दिन किसी भी प्रकार के शैक्षिक आरम्भ के लिए शुभ होता है, इस दिन सर्वप्रथम भगवान् दक्षिणामूर्ति की वंदना करना चाहिए।
पूर्णिमा (विशेष रूप से गुरु पूर्णिमा) का दिन भी दक्षिणामूर्ति पूजा के लिए अत्यंत शुभ होता है।
Dakshinamurthy Stotram Lyrics in Sanskrit
ध्यानम्-
मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं।
वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणैः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः।।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं।
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ।1।
जिनकी मौन व्याख्या उनके शिष्यों के हृदय में परम ब्रह्म के ज्ञान को जागृत कर रही है, जो युवा हैं तथापि (फिर भी) ब्रह्म में लीन वृद्ध ऋषियों से घिरे हुए हैं [अर्थात वृद्ध ऋषि जिनके शिष्य हैं], जिन ब्रह्म ज्ञान के सर्वोच्च आचार्य के हाथ चिन्मुद्रा (ऊपर फोटो में देखें) में हैं, जिनकी स्थिर और आनंदमय है, जो स्वयं में आनन्दमय हैं यह उनके मुख से प्रतीत होता है; उन दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।।
वटविटपि समीपेभूमिभागे निषण्णं।
सकल मुनिजनानां ज्ञानदातारमारात्।।
त्रिभुवन-गुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं।
जननमरणदुःखच्छेद दक्षं नमामि ।2।
जो वटवृक्ष (बरगद) के नीचे भूमि पर बैठे हैं, जिन ज्ञानदाता के समीप सभी मुनि जन बैठे हैं, जो दक्षिणामूर्ति तीनों लोकों के गुरु हैं, उन जन्म-मरण के दुःख से भरे चक्र को नष्ट करने वाले देव को नमन करता हूँ ।।
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः ।3।
वास्तव में यह विचित्र है कि वट वृक्ष की जड़ पर वृद्ध शिष्य (ऋषिगण) अपने युवा गुरु (शिव) के समक्ष बैठे हुए हैं, और गुरु का मौन व्याख्यान उन शिष्यों के संशय (doubts) को दूर कर रहा है।।
निधये सर्वविद्यानां भिषजे भवरोगिणाम् ।
गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नमः ।4।
जो सभी विद्याओं के निधान (भण्डार) हैं, संसार के सभी रोगों के उपचारक [औषधि] हैं, उन सभी लोकों के गुरु श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।।
ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये।
निर्मलाय प्रशान्ताय दक्षिणामूर्तये नमः ।5।
ॐ, जो प्रणव (ॐ) और शुद्ध अद्वैत (Non-Dual) ज्ञान के मूर्त-रूप हैं, उन्हें नमस्कार है, निर्मल और शान्ति समाहित (जो शान्ति से परिपूर्ण हो ऐसे) श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।।
चिद्घनाय महेशाय वटमूलनिवासिने ।
सच्चिदानन्दरूपाय दक्षिणामूर्तये नमः ।6।
सघन चेतना के रूप को, महा-ईश्वर (महादेव) को, वटवृक्ष (बरगद) के मूल पर निवास करने वाले, सत-चित-आनंद (Existence, Consciousness, Bliss) के मूर्त रूप को, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद् व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।7।
ईश्वर, गुरु, और आत्मन्- इन तीनों विभिन्न रूपों में जो आकाश (आध्यात्मिक आकाश या चिदाकाश) की तरह जो व्याप्त हैं, उन दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।।
स्तोत्रम्
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं।
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।1।
स्वयं के अंतर्मन में देखने पर सम्पूर्ण विश्व एक दर्पण (mirror) में बसे नगर के समान है, अपने आत्मन के भीतर से देखने पर (नींद के स्वप्न की तरह, माया से बना) यह बाहरी संसार आत्मन की आध्यात्मिक जागृति के समय, स्वयं अद्वैत आत्मन के भीतर साक्षात दिखाई देता है, अपने गहन मौन से इस ज्ञान को जागृत करने वाले उन गुरु रूप श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।।
बीजस्याऽन्तरिवाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्गनिर्विकल्पं पुनः।
मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् ।।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।2।
यह जगत जो बीज के अन्दर स्थित अंकुर की भांति है, यह माया के द्वारा रचित आकाश (space) और समय से मिलकर बार-बार अनेकों रूपों में जन्म लेता है। वे महायोगी जो एक मायावी की भांति अपनी इच्छा मात्र से इस जगत की गतियों को नियंत्रित करते हैं, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते।
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।3।
जिनका स्पंदन (फड़क, गति) ही सत-चित-आनंद की प्रकृति को दर्शाता है, जिनका वास्तविक रूप एक आभासी (अवास्तविक) रचना लगता है, जो अपने आश्रितों को साक्षात ही तत्-त्वम-असि का वेद वचन सुनाते हैं। जिनका साक्षात ज्ञान प्राप्त कर व्यक्ति फिर कभी जन्म और मृत्यु के समुद्र में नही फंसता, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।
नानाच्छिद्रघटोदर-स्थितमहादीप-प्रभा भास्वरं।
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण-द्वारा वहिः स्पन्दते ।।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तं जगत्।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।4।
जिस प्रकार कई छिद्रों वाले बर्तन में रखे एक चमकते दीपक की रोशनी उस बर्तन के बाहर से चमकती दिखती है, इसी प्रकार मात्र उसका [आत्मन का, स्वयं का ] ज्ञान हो जाने से मनुष्य की आँखें भी बाहर से चमकती दिखाई देती हैं। “मैं जानता हूँ” इस रूप में जिस अकेले की प्रभा से समस्त जगत प्रभावान होता है, मैं अपने गुरु के रूप में उन श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः।
स्त्रीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणे।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।5।
जो लोग देह (शरीर), प्राण, इन्द्रियों, प्राचल (गतिमान) बुद्धि या परम शून्य को ही, “मैं” का अर्थ, मानते हैं वे एक भोली लड़की की भांति और अंधे होकर भी अपनी बातों को जोरों से बोलते रहते हैं। माया, शक्ति और विलास से पैदा हुए इस महान व्योम (भ्रान्ति) को नष्ट करने वाले अपने गुरु के रूप में, मैं श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।
राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्।
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।6।
जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु द्वारा ग्रहण किया जाता है, वैसे ही माया के द्वारा ढके हुए, इन्द्रियों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्री दक्षिणामूर्ति को गुरु रूप में नमस्कार है।।
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि।
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रयाभद्रया।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।7।
बाल्य अवस्था और अन्य अवस्थाओं में, जागते हुए या निद्रा आदि जीवन की सभी अवस्थाओं में जो आत्मन (आत्मा) शरीर के भीतर दीप्त रहती है, वह सभी नियमों से मुक्त लेकिन हर समय उपस्थित रहती है। जो अपने भक्तों को चिन्मुद्रा के माध्यम से इस आत्मन का ज्ञान कराते हैं, उन श्री दक्षिणामूर्ति को गुरु रूप में नमस्कार है।।
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः।
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः ।।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।8।
विश्व में जो अलग-अलग सम्बन्ध जैसे कि- कार्य-कारण, स्व-स्वामी, शिष्य-आचार्य, और पिता-पुत्र आदि दिखाई देते हैं, स्वप्न में और जागृति में ये सभी समबंध पुरुष ( आत्मतत्व ) को भ्रमित करने के लिए माया द्वारा बनाए गये हैं। मैं अपने गुरुरुपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशु पुमान् ।
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।।
नान्यत् किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोः।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।9।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,सूर्य, चन्द्र और जीव- ये आठ उस [आत्मन] के रूप हैं, जो चर-अचर रूपों में विद्यमान हैं, इस [आत्मन] के अतिरिक्त संसार में कुछ भी नही हैं, यही सर्वव्यापक है, अंतर्मन में लीन योगी इसे ही विश्व का सार मानते हैं, मैं अपने गुरुरुपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार करता हूँ।।
फलश्रुति-
सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे।
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च संकीर्तनात् ।।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः।
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ।10।
क्योंकि इस स्तुति में स्वयं [आत्मन] की सर्वव्यापकता स्पष्ट रूप से प्रकट हुई है, जिसके बारे में सुनने से, उसके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से अष्टांगिक ऐश्वर्यों के साथ विश्व के परम सार के ज्ञान की प्राप्ति होती है, बिना बाधा और कठिन प्रयास किये आध्यात्मिक जागृति प्राप्त होती है।।।
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References-